फैसला लेना आसान काम नहीं होता है। उस पर जब आपका दिल और दिमाग दो अलग- अलग बाते करने लगे तो ये मुश्किल और ज्यादा बढ़ जाती है। ऐसे हालातों से हम सभी अक्सर ही गुजरते है। ऐसा जरूरी नहीं होता है कि दिमाग प्रैक्टिकल सौचता है दिल भावनाओं में बहकर बोलता है। इसके पीछे एक वैज्ञानिक कारण होता है। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, ब्रिकबेक यूनिवर्सिटी लंदन और इजरायल की तेल अवीव यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने निर्णय लेने की क्षमता पर गहन अध्ययन किया
शोधकर्ताओं के अनुसार जब व्यक्ति के पास ए और बी ऑप्शन होता है तो वह यह बखूबी जानता है कि एक सही है और दूसरा गलत। लेकिन जैसे ही उसे ऑप्शन सी मिलता है उसका दिमाग भटकने लगता है। दिमाग में शोर होने लगता है। जिस तरह तेज संगीत के शोर में हम किसी चीज पर ध्यान नहीं लगा पाते, ठीक वैसे ही ज्यादा विकल्प उपलब्ध होने पर दिमाग भी समझ नहीं पाता।
जब हमारे पास सिर्फ दो विकल्प हों तो हम ज्यादा अच्छा निर्णय लेते हैं बजाए ढेरों विकल्प के। इसलिए आगे से कभी भी यह मत सोचिए की आपको कई चीजों में से किसी एक को चुनने का मौका मिले। क्योंकि ऐसे में आप अक्सर गलत ही फैसला करेंगे। व्यवहार पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि हम दिल में जानते हैं कि हम तर्कहीन फैसला ले रहे हैं, फिर भी हम उसे चुनते हैं। एक-दूसरे से पूर्णतया भिन्न विकल्पों को एक ही पैमाने पर परखते हैं और उसमें से किसी एक को चुनते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह का निर्णय पारंपरिक निर्णय सिद्धांत का उल्लंघन है और मानव संसाधन की क्षमता का पूरी तरह से दुरुपयोग है, जिसे मूर्खता की संज्ञा भी दी जाती है।